शिवेन्द्र राणा सन् 1925 को विजयादशमी के दिन स्थापित संघ शतायु हो गया. गतिशील 2025 में इसे उत्साहपूर्ण ढंग से, उत्सवरूप में आयोजित करने का विचार सर्वत्र चर्चा मे है. इसी परिपेक्ष्य में पिछले दिनों काशी प्रवास के समय ‘मन ठीक संवाद’ के दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत ने शताब्दी वर्ष में आगामी योजनाओं पर बात करते हुए अन्य निर्देशों के अतिरिक्त उन लोगों को जोड़ने की बात की जो पूर्व में संघ के सहपथिक रहने के बाद लम्बे समय से संघ का साथ छोड़ चुके हैं या निष्क्रिय हो चुके हैं |
‘संघे शक्ति कलयुगे’, भारतीय ज्ञान परंपरा आधारित ये शिक्षार्थ विचार वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य लक्ष्य का आधार विचार है. लेकिन कोई आतंरिक द्वन्द जरूर है जो संगठन को अपने छूट गये या दूर हुए कॉडर को वापस हमराह बनाने को व्यग्र कर रही है.
वैसे भी उसके आनुषांगिक राजनीतिक संगठन भाजपा के द्वारा पिछले दस वर्षों से अधिक के शासन-सत्ता में संघ का इक़बाल बढ़ा है, वकार में इजाफा हुआ है तो ये देखना होगा कि क्या अहंकार भी बढ़ा है. साथ ही ये भी देखना होगा कि कहीं सत्ता की त्वरा ने संघर्ष के साथियों से दूर तो नहीं कर दिया है. और ऐसा निश्चित तौर पर हुआ है तभी मोहन भगवत को पुराने स्वयंसेवक परिवारों से सम्बन्ध जोड़ने और उन्हें वापस साथ लाने की योजना पर बात करनी पड़ रही है. इसका तथ्य का सबसे सटीक प्रमाण है, प्रो. शंकर शरण, पत्रकार संदीप देव एवं मधु किश्वर, आईपीएस नागेश्वर राव जैसा बौद्धिक वर्ग.
पत्रकार संदीप देव जो कांग्रेस के यूपीए शासन काल से ही संघ के समर्थन एवं वामपंथी वैचारिकी के विरोध में अत्यंत मुखर रहे थे. उनके द्वारा द्वितीय सरसंघचालक गोलवरकर पर लिखी किताब को मध्य प्रदेश साहित्य एकेडमी द्वारा पुरस्कृत किया जा चुका है. वे संघ समर्थित लेखन के लिए जाने जाते रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से देव संघ परिवार के राजनीतिक तौर-तरीकों के कटु आलोचक हैं. उनका विरोध संघ-सिद्धांतों को लेकर भी है. इसी सन्दर्भ में बताते चलें कि देव देश के संभवतः एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा हंस-डिम्बक कथा को अज्ञानतापूर्ण अनुचित रूप से समलैंगिक अर्थ प्रदान करने के विवाद के लिए दिल्ली में मुकदमा तक दर्ज करा दिया.
इसी प्रकार, प्रो. शंकर शरण, जो. वामपंथी-इस्लामिक वैचारिक गठजोड़ के धुंध में अकेले ही दक्षिणपंथी सिद्धांत की मशाल थामे रहे, आज उपेक्षित हैं. उनके द्वारा लिखित, 2022 में प्रकाशित पुस्तक ‘संघ परिवार की राजनीति’ वस्तुतः उनके क्षॉभ की अभिव्यक्ति है, जो तिरस्कार और आक्षेप उन्हें झेलने पड़े. इस पुस्तक में अपनी बात कहने में उन्होंने सीताराम गोयल, अरुण शौरी एवं नील माधव दास जैसे पूर्व में संघ के प्रतिष्ठित निकटवर्ती एवं प्रबल समर्थक विद्वानों के विचारों का प्रश्रय लिया है, लेकिन मूल में वैचारिक आधार प्रो. शरण का ही रहा है. उक्त पुस्तक संघ परिवार की सैद्धांतिकी तथा कार्यशैली की अत्यंत कठोर समीक्षा करती है.
ख़ैर लक्षित प्रश्न यह है कि देव, किश्वर, नागेश्वर राव जैसे दक्षिणपंथ को समर्पित लोगों के संघ विरोध के पीछे मूल वजह क्या है? जिसका स्पष्ट उत्तर देते हुए पत्रकार संदीप देव कहते हैं, ‘इन्होंने (आरएसएस) हिंदुत्व को मूल सनातन धर्म से अलग कर दिया है.हमारा इनसे प्रतिवाद मूलतः तीन बिन्दुओं पर आधारित है, मंदिर विवाद में इनका रुख, बीफ खाने को समर्थन एवं सनातन धर्म-शास्त्रों के पुनर्लेखन की बात करना.’
संभव है कि इन आलोचनाओं को तार्किकता की कसौटी पर परखने से स्थिति उतनी दुष्कर ना हो अथवा थोड़ी भिन्न हो, किन्तु इसके लिए अपने खांटी समर्थकों के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख प्रकट करना सर्वथा अनुचित है. यह आवश्यक नहीं है हर व्यक्ति सम्बंधित संगठन के शीर्ष नेतृत्व के सभी दृष्टिकोणों से सहमत ही हो. और तर्क एवं प्रश्न तो भारतीय ज्ञान परंपरा के विस्तार का मूल आधार ही रहा है. ऐसे में समालोचना के प्रति दुराग्रहपूर्ण रवैया स्वयं के सनातन संस्कारों पर गंभीर सवाल खड़े करता है. यह शामी पंथीय संस्कार हैं जिन्हें भारतीय संस्कृति में सदैव से त्याज्य माना गया है.
हालांकि सवाल दूसरे भी हैं| क्या संघ परिवार अपने स्वयंसेवकों के साथ दृढ़ता से खड़ा है और रहते या उसे यह सम्बन्ध सुविधानुसार चाहिए? यह आज का यक्ष प्रश्न है. इस सवाल का जवाब यदि हाँ है, अतीत के बहुतेरे घटना-क्रम इसका समर्थन नहीं करते.
विद्वान क्रोचे के अनुसार, ‘सभी इतिहास समसामयिक होते हैं|’ संघ कॉडर के एक बड़े वर्ग का पिछले कुछ वर्षों में विचलन संघ के ऐतिहासिक यात्रा का ऐसा ही समसामयिक पृष्ठ है.
संभवतः आपको दारा चौहान याद हो, जैसा कि पूर्व में प्रचलित रहा था कि वे उड़ीसा के जनजातीय इलाकों में संघ के एक आनुषांगिक संगठन की ओर से कार्य कर रहे थे. वहाँ नाबालिक आदिवासी बच्चियों के बलात्कार के आरोपी एवं वनवासी समुदाय के धर्मान्तरण में रत ग्राहम स्टेन को क्रोधित ग्रामीणों द्वारा जलाकर मार डालने की घटना का मुख्य आरोपी बना, वो आज तक जेल में है. लेकिन संघ परिवार की ओर से किसी ने भी उसकी क़ानूनी, आर्थिक मदद या भावनात्मक समर्थन नहीं दिया | जैसा कि आक्षेप दारा के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे मुकेश जैन लगाते हैं, जिन्होंने उसकी रिहाई के लिए न्यायालय में याचिका दायर कर रखी है. जैन बताते हैं, घटना के समय पिछड़ी जाति गड़रिया से आने वाले दारा चौहान बजरंग दल के क्योंझोर जिला प्रमुख (उड़ीसा) थे. उस समय वहाँ ईसाई मिशनरियों ने हिन्दू वनवासियों के विरुद्ध आतंक मचा रखा था, जिसे संघ भी देख-समझ रहा था. तत्कालीन जन प्रतिक्रिया स्वरुप हुई क्योंझोर हत्याकांड (1999) के लिए दारा को आजीवन कारावास की सजा हुई जिसकी क़ानूनन समय सीमा 14 वर्ष होती है लेकिन दारा पिछले 25 सालों से भी अधिक समय से जेल में हैं, 60 वर्ष की आयु में, बिना किसी पेरोल के. और गजब है कि एक दशक से अधिक की शासन काल में संघ परिवार की ओर से भी कोई मदद नहीं मिली.
ऐसे ही मुद्दे पर संघ कॉडर से भाजपा में आये पूर्वांचल के एक समय के शीर्ष नेतृत्व में शामिल रहे नेता का कटाक्ष था कि, “पहले आप धर्म-राष्ट्रीयता की भावनाओं को हवा दो और ज़ब इसके उत्साहातिरेक में बच्चों से गलती हो जाये तो अपनी कॉलर बचाने में उनसे पल्ला झाड लीजिये. आपसे अच्छे तो वे जिहादी हैं, जों कम से कम अपने लिए जान देने वालों को शहीद का दर्जा तो देते हैं.” यदि इन आक्षेपों में रत्ती भर भी सत्यता है तो यह सांगठनिक नैतिकता का अनादर है.
हालांकि विगत समय से कई उदाहरण हैं जो इस ओर इशारा करते हैं कि संघ परिवार (आनुषांगिक संगठनों समेत) अपने स्वयंसेवकों-कार्यकर्त्ताओं द्वारा भावना अतिरेक में किये गये किसी कार्य या गलती की दशा में उसे अकेला छोड़ देता है. जैसे ताज़ातरीन उदाहरण मोनू मानेसर एवं बिट्टू बजरंगी का है. जिन्होंने गो-रक्षा में बेझिझक समर्पित होकर कार्य किया है किन्तु ज़ब वे नूह विवाद के कारण गिरफ्तार हुए तब संघ परिवार की ओर से कोई भी इनके सहायतार्थ आगे नहीं आये. इन्हें अपनी क़ानूनी लड़ाई स्वयं ही लड़नी पड़ी.
ख़ैर यह संघ की व्यावहारिक रणनीति हो सकती है. हालांकि अब भी मुख्य रूप से प्रश्न यही है कि क्या संघ अपनी आलोचनाओं को भी स्वीकार कर रहा है? उन आलोचकों की नहीं जो वामपंथी कुंठा से परिपूर्ण हैं, जिन्हें हर बात में मीन मेख निकालने की कुवृत्ति है.
आलोचना उनकी जो संघ के प्रति समर्पित रहे हैं, उससे जुड़े रहे , उसके कार्यों में सहभागिता की और उसके वैचारिकी के प्रति सुहृदय रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में अपनी प्रश्नवाचक मुद्रा एवं सैद्धांतिकी असहमतियों के कारण ना सिर्फ अनदेखा किये गये बल्कि अपमानित तक हो रहे है.
हो सकता है कि सत्ता के शिखर बिन्दु की आप्ति के नाद का कोलाहल उन शब्दों की आमद रोक देता हो, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे वेदनापूर्ण, क्षभित उलाहने मौजूद नहीं है जिसमें जीवन के स्वर्णिम काल में संगठन के प्रति नि:स्वार्थ स्व-समर्पण के बावजूद अपमानित होकर लौटने और अपने खून-पसीने से सिंचित संगठन को बाहरी, अवसरवादी व्यक्तियों द्वारा नकारात्मक दिशा में धकेलने के विरुद्ध उठने वाली मूल कॉडर की प्रतिरोधी स्वर और वेदनापूर्ण आवाजें हैं.
स्थायित्व तो कहीं भी नहीं है. ना जड़-चेतन में, ना धरा ना जल में. शाश्वत एवं चिरंतन होने का विचार केवल ईश्वरीय अवधारणा तक सीमित है. इसका विस्तार किसी संगठन, सत्ता (लोकतान्त्रिक या अधिनायकवादी), सिद्धांत या विचार एवं व्यक्ति तक नहीं है. आखिर जन्म-मरण, जरा-जीर्णता की सनातन मान्यता का प्रत्यक्ष सन्देश भी तो यही है कि जो आया है, उसे जाना ही पड़ेगा, कभी ना कभी अथवा एक निर्धारित अवधि के पश्चात्. ऐसे जिस दिन राजनीतिक सत्ता का अवसान होगा उस दिन के पश्चात् सांस्कृतिक कार्यों के संचालन हेतु वापस अपने द्वारा तिरस्कृत. पूर्व कॉडर के पास जाना होगा, ऐसे संगठन के लिए स्थिति असहज होगी.
विशेष होना, विशेष दिखना कठिन नहीं है, कठिन होता है सहज होना. एक राष्ट्रीयता संयोजक संगठन के रूप से संघ के पदाधिकारियों में नैसर्गिक रूप से विद्यमान रही यह सहजता कहीं खोने लगी. इसका सबसे मुखर दुष्परिणाम है, अपनी समालोचना के प्रति असहिष्णु आक्रामक रुख एवं सामान्य लोगों के प्रति अहमन्य-अहंकारपूर्ण रवैया. ये संभवतः सत्ता की निर्द्वन्द सुलभता का परोक्ष कुप्रभाव हो सकता है. लेकिन इससे जनित संकट तो प्रत्यक्ष है.
वैसे यह प्रमाणित तथ्य है कि किसी व्यक्ति या संगठन का सामाजिक हित में अवदान उसकी सर्जनात्मक चेतना पर निर्भर करता है जिसे समालोचना के प्रति आग्रही एवं अहंकार के प्रति प्रतिरोधी प्रवृत्ति का होना चाहिए. तथा वैचारिक विकास हेतु तर्क-शक्ति हो प्रोत्साहित करना चाहिए. कुछ समय पूर्व आरएस एस के सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने कहा था, संघ को समझने के लिए सिर्फ दिमाग़ नहीं दिल की भी जरुरत है|’ ठीक है, हो सकता है ह्रदय की प्रधानता हो, परन्तु फिर विचार-बुद्धि का क्या, उसे भी तो सुनना पड़ेगा क्योंकि बुद्धि की तार्किकता से हीन ह्रदय को भावना का अतिरेक भ्रमित कर सकता है. उम्मीद है राष्ट्रवाद को समर्पित यह सांस्कृतिक संगठन ऐसे भ्रम से बचने का प्रयत्न करेगा.
ऐसे में समझना जरुरी है कि किसी संगठन अथवा व्यवस्था की समालोचना का उद्वेग उसके दोषों की की त्वरा का संकेत जो अंततः निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधक बनता है. जैसा कि प्रख्यात चिन्तक बनवारी जी स्वतंत्रता संघर्ष में गाँधी जी के नेतृत्व की समीक्षा करते हुए लिखते हैं, ‘उन्हें दोष और विघ्न में गहरा रिश्ता नजर आता है. उन्हें लगता है कि अगर उनकी लड़ाई में जरा भी दोष आ गया तो उनके लक्ष्य में विघ्न पैदा हो जायेगा.’ (भारतीय सभ्यता के सूत्र श्रीविनायक प्रकाशन, दिल्ली, 1996, पृष्ठ-29) गंभीर निहितार्थ लिए इस विचार का लक्ष्य भिन्न हो सकता है किन्तु सन्देश अन्यत्र भी समीचिन है, क्या संघ अपने शताब्दी वर्ष के इस कालखंड में अपने छूटे, निष्क्रिय स्व-जनों के असंतुष्ट, आलोचक स्वरों के अनुकूल स्व-समीक्षा हेतु इसे आत्मसात करने को तत्पर है?