श्वेता पुरोहित। इक्ष्वाकु वंश में बृहदश्व नामक एक प्रतापी राजा हुए । उन्होंने अनेक वर्षों तक धर्म पूर्वक राज्य किया । उनके राज्य में प्रजा सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती थी । उनके कुवलाश्व नामक एक पुत्र थे, जो उन्हीं के समान तेजस्वी, धर्मात्मा और प्रजाप्रिय थे । जब बृहदश्व वृद्ध हुए तो उन्होंने अपना शेष जीवन प्रभु-भक्ति में लगाने का निश्चय कर कुवलाश्व का राज्याभिषेक किया और उन्हें राज्य सौंपकर तपस्या करने के लिए वन जाने लगे ।
तभी वहाँ महर्षि उत्तंक आ पहुँचे और उन्हें रोकते हुए बोले – “राजन ! प्रजा की रक्षा करना राजा का धर्म है और आपके क्षेत्र में निवास करने वाले ऋषि-मुनि भी आपकी प्रजा हैं, अतः आप अपने धर्म का पालन कर हमारी रक्षा कीजिए ।
राजन ! मेरे आश्रम के निकट समस्त मरुप्रदेश में एक बालू से पूर्ण अर्थात् बालुकामय समुद्र है, उसका नाम है उज्जालक है। वहाँ धुंधु नामक एक अत्यंत विशाल और भयंकर दैत्य रहता है । वह मधु कैटभ का पुत्र है। समस्त लोकों का संहार करने का निश्चय कर वह पृथ्वी के भीतर घोर तपस्या कर रहा है । वर्ष में वह एक ही बार साँस लेता है तथा बड़े वेग से उस साँस को छोड़ता है । उस समय सम्पूर्ण पृथ्वी काँपने लगती है । उसके श्वास की वायु से उड़ने वाली धूल सूर्यदेव तक को भी ढक लेती है । इससे हमारा तप खण्डित हो जाता है । वह सम्पूर्ण लोकों और देवताओंके विनाशके लिये कठोर तपस्याका आश्रय लेकर (पृथ्वी में) शयन करता है। राजन् ! वह सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्माजी से वर पाकर देवताओं, दैत्यों, राक्षसों, नागों, यक्षों और समस्त गन्धर्वोक लिये अवध्य हो गया है।
राजन! ब्रह्माजी ने क्षत्रियों की रचना ब्राह्मणों की रक्षा के लिए की है और आप ही हमारे रक्षक हैं । अतएव सृष्टि-कल्याण के लिए आप उस दुष्ट दैत्य का संहार कीजिए ।”
उनकी बात सुनकर बृहदश्व ने कुवलाश्व को धुंधु का वध करने की आज्ञा दी और स्वयं वन में चले गए ।
राजा कुवलाश्व के सौ पुत्र थे । वे सभी श्रेष्ठ धनुर्धर, बलवान, वीर और समस्त विद्याओं में निपुण थे । शरणागत की रक्षा करना वे अपना धर्म समझते थे । इसलिए कुवलाश्व उन्हें साथ लेकर दैत्य धुंधु का वध करने चल पड़े । मुनि के आश्रम के निकट पहुँचकर कुवलाश्व अपने पुत्रों से वह स्थान खुदवाने लगे, जहाँ धुंधु तपस्या में लीन था ।
शीघ्र ही राजकुमारों ने पृथ्वी खोद कर धुंधु को ढूँढ लिया । इससे धुंधु की तपस्या खण्डित हो गई और वह क्रोधित होकर बोला – “दुष्टों तुमने मेरी अनेक वर्षों की तपस्या भंग करने का दुःसाहस किया है । अब तुम्हें मेरे क्रोध से कोई नहीं बचा सकता ।” इतना कहकर उसके विकराल मुख से भीषण लपटें निकलने लगीं और उसमें कुवलाश्व के तीन पुत्रों को छोड़कर शेष सभी भस्म हो गए ।
पुत्रों को भस्म होते देखकर कुवलाश्व क्रोधित होकर धुंधु को ललकारते हुए बोले – “दुष्ट! तू बड़ा पापी, दुराचारी और अहंकारी है । सृष्टि-कल्याण के लिए तेरा वध आवश्यक है ।”
दोनों में भीषण युद्ध आरम्भ हो गया । तपस्या के कारण धुंधु अत्यंत बलशाली हो गया था, इसलिए धीरे-धीरे उसके सामने कुवलाश्व की शक्ति क्षीण पड़ने लगी । धुंधु के तपोबल के सामने कुवलाश्व को विवश देखकर महर्षि उत्तंक ने भगवान् विष्णु का स्मरण कर उनसे सहायता की प्रार्थना की । तब श्रीविष्णु ने कुवलाश्व में अपना तेज प्रविष्ट कर दिया । शक्ति प्राप्त कर कुवलाश्व अत्यंत बलशाली हो गए और दुगुने वेग से धुंधु पर प्रहार करने लगे । तब धुंधु ने अपनी मुखाग्नि से कुवलाश्व पर प्रहार किया । किंतु श्रीविष्णु की कृपा से उसकी अग्नि-ज्वालाओं को वे पी गए ।
अपने वार निष्फल जाते देखकर धुंधु भयभीत होकर वहाँ से भागने लगा । तभी कुवलाश्व ने तलवार के एक ही वार से उसका मस्तक काट दिया । उसके मरते ही देवगण उन पर पुष्प-वर्षा करने लगे ।
तब महर्षि उत्तंक उन्हें वरदान देते हुए बोले – “वत्स ! तुम्हारा धन और यश सदा अक्षय रहेगा । शत्रु कभी तुम्हें पराजित नहीं कर पाएँगे । पृथ्वी के समस्त ऐश्वर्य भोगने के बाद तुम्हें स्वर्ग प्राप्त होगा । धुंधु के हाथों मारे गए तुम्हारे पुत्रों को भी स्वर्ग प्राप्त होगा ।” इसके बाद महर्षि को प्रणाम करके कुवलाश्व अपने तीन पुत्रों के साथ राजधानी लौट आए ।
धुंधु का वध करने के कारण कुवलाश्व ‘धुंधुमार’ नाम से भी प्रसिद्ध हुए ।
जय श्रीराम 🙏 🚩