हेमंत शर्मा, लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार। साभार: फेसबुक वॉल से।अतुलितबलधामं, हेमशैलाभदेहम् भक्ति की चरम अवस्था का नाम हनुमान है. हनुमान, भक्ति में कुछ भी कर गुज़रने की पहचान हैं. भक्ति की यह चरम अवस्था ही वानर में देवत्व की स्थापना करती है. जिसे माना उसमें कोई गुण-दोष न देखने की प्रवृत्ति का नाम हनुमान है. सफल एग्ज़ीक्यूटर. कुशल प्रबंधक. अद्भुत संगठक हनुमान हैं. अपने स्वामी के प्रति यह समर्पण ही वानराणामधीश: को तिहुलोक उजागर बनाता है. हनुमान वायुपुत्र हैं. रुद्रावतार हैं. आठ सिद्धि और नौ निधि के ज्ञाता हैं. ब्रह्मचारी हैं. मंगलदाता हैं. महावीर, विक्रम, बजरंगी हैं. इन सबसे ऊपर राम भक्ति के शिखर हैं. इस सृष्टि में जो सात लोग चिरंजीवी हैं, हनुमान उनमें एक हैं. शास्त्रों में अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम ये सात चिरंजीवी माने गए हैं. ये सभी अमर हैं. उन्हें जीवित मानते हैं. इसलिए आज हनुमान जी की जयंती नहीं जन्मदिन मनाइएगा. गाइए, बजाइए, उत्सव मनाइए. क्योंकि आज अतुलितबलधामं, हेमशैलाभदेहम्, दनुजवनकृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्, सकलगुणनिधानं, वानराणामधीशम्, रघुपतिप्रियभक्तं का जन्मोत्सव है.
हनुमान अपार ताक़त के पुंज हैं. उनकी यह ताक़त अतिशय विनम्रता की नींव पर है. उनकी बुद्धिमत्ता उनकी घनीभूत ताक़त का मुकुट है. भक्ति, विनम्रता और बुद्धिमत्ता के चलते उनका राम काज अमर हो गया. और ‘राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम.’ सदियों से यह वाक्य राम भक्त पीढ़ियों का ध्येय वाक्य बन गया. इसी ‘रामभक्ति’ ने उन्हें वानर से देवता बना दिया. हनुमान वायुपुत्र हैं. केसरी के क्षेत्रज पुत्र हैं. पर हनुमान इससे देवता नहीं बने. वाल्मीकि रामायण में हनुमान में ईश्वरत्व के सारे गुण मौजूद हैं. तेज, धृति, यश, चतुरता, शक्ति, विनय, नीति पुरुषार्थ, पराक्रम, उत्तम बुद्धि सभी गुण हैं. फिर भी उन्हें न भगवान, न देवता माना गया. वे अमर हैं, पर देवता नहीं. ‘देवत्व’ उन्हें दिया गोस्वामी तुलसीदास ने. वह भी मानस में नहीं. विनयपत्रिका, कवितावली और हनुमान बाहुक में. हनुमान चालीसा ने तो उन्हें पूर्ण देवत्व की प्राप्ति करा दी.
सवाल यह है कि हनुमान को ही देवत्व क्यों मिला? भरत, लक्ष्मण को क्यों नहीं मिला? ये भी तो राम भक्त थे. सुग्रीव तो वानरों के राजा थे. वे वानर ही रह गए. वजह, पूरी रामकथा में हनुमान की दृष्टि केवल राम की भक्ति पर है. ऐसी भक्ति कहीं और नहीं है. उनका अवतार ही राम काज के लिए हुआ है. राम उनके उपकार से दबे हैं. वे आदिवासी हैं. वनवासी हैं. यह साबित करते हैं कि सामान्य कुल/गोत्र वाला वनवासी, आदिवासी भी पूज्य बन सकता है. हनुमान के लिए भक्ति साधन भी है. साध्य भी. जब तक राम भक्ति है, तब तक हनुमान हैं. जहाँ रामकथा, वहाँ हनुमान हैं. हनुमान और रावण एक उदाहरण हैं, राम भक्ति के ज़रिए देवता बनने के और राम विरोध के ज़रिए राक्षस बनने के.
भारत की शास्त्र परम्परा में हनुमान अद्भुत प्रयोग हैं. हनुमान में भारत की वैदिक और लौकिक दोनों परम्पराएं आकर मिल जाती हैं. उनका एक चरण वेद में और दूसरा लोक मन में है. शिव, विष्णु और देवी के बाद हनुमान चौथे ऐसे चरित्र हैं जिनमें आदिम, लोकायत, वैदिक और पौराणिक असंख्य कथासूत्र एक साथ मिलते हैं. हनुमान अपने कथा और प्रभाव सन्दर्भ में युग निरपेक्ष हैं. काल परम्परा के संदर्भों में वह हर युग में विद्यमान हैं. शिव और विष्णु के बाद हनुमान तीसरे ऐसे चरित्र होंगे जिनको लेकर इतनी तरह की कथाएँ हैं कि आप जैसे चाहें उन्हें स्वीकार कर सकते हैं. अनोखी बात यह है कि हनुमत तत्व का विस्तार बौद्ध और जैन गाथाओं तक है. भक्ति के परम रम्य संदर्भों से लेकर तंत्र और रहस्य विद्याओं तक हनुमान इतनी सहजता से आवागमन करते हैं कि मानो लगता है कि उनको जिस भी परम्परा ने देखा, उसने अपनी तरह से उन्हें अपना लिया.
रामभक्तों में हनुमान सर्वश्रेष्ठ हैं. उन्होंने अतुलित पराक्रम और चातुर्य से सीता की खोज की. राम-रावण युद्ध में पग-पग पर इनके शौर्य का परिचय मिला. जंगल में उनका प्रबंधन अद्भुत था. इन्होंने रावण के कई सेनापतियों का वध किया और लक्ष्मण के मूर्छित हो जाने पर हिमालय से पूरा पर्वत ही उठा लाए. हनुमान ब्रह्मचारी थे, फिर भी कहते हैं कि इनके पसीने की बूंद से एक मगर ने मकरध्वज को जन्म दिया.
अतुलित बलशाली, राक्षस हंता, हेमाद्रि जैसे शरीर वाले, ज्ञानियों में अगुआ हनुमान गलदाश्रु हैं. किसी भावुक भक्त की तरह उनके नेत्र वाष्प और वारि से भरे हैं. राम के नाम से उनकी आँखें भीग जाती हैं. शंकराचार्य ने हनुमान के जिस स्वरूप की स्तुति की वह महाबली वाला स्वरूप नहीं है. आचार्य शंकर कहते हैं-
वीतखिलविषयेच्छं जातानंदाश्रुपुलकमत्यच्छम
तरुणाकरुणमुखकमलम करुणारसपूरपूरितपांगम।
पर हनुमान की लोक प्रतिष्ठा इससे कुछ भिन्न है. लोक के मन में बैठे रामभक्त बजरंग तो ‘ओम हनु हुन हनुमंत हठीले, बैरिह मारि बज्र को कीले’ वाले हैं जो उठ उठ चलु तोहि राम दोहाई … यानी कि शपथ देने पर शत्रु का दमन कर देते हैं.
हनुमान उत्पत्ति की कथा के विस्तार में भारतीय चिन्तन की अनोखी चित्रावली बनती है जिसमें वाल्मीकि का महाबलशाली चरित्र तुलसी के माध्यम से परम भक्त में बदल जाता है. वाल्मीकि के रुद्र संभव बलपुंज हनुमान तुलसी के भावुक वैष्णव भक्त में बदल जाते हैं.
सांचो एक नाम हरि लीन्हे सब दु:ख हरि और, नाम परिहरि नरहरि को ठाए हो,
बानर न होहु तुम मेरे बानरस सम, बली मुख सूर बली मुख निज गाए हो,
साखामृग नाहीं बुद्धिबलन के साखामृग, कैंधों बेद साखामृग केसव को भाए हो,
साधु हनुमंत बलवंत जसवंत तुम, गए एक काज को अनेक करि आए हो.
महाकवि केशव की यह हनुमंत स्तुति, हनुमत तत्व की लोक अवधारणा का मनोरम चित्रण है.
लेकिन हनुमत तत्व का मूल गहन वैदिक है. ऋग्वेद के दशम मंडल में एक सूक्त है जिसे वृषाकपि सूक्त कहते हैं. यह किसी लौकिक कल्पना का वैदिक प्रस्फुटन प्रतीत होता है. इसमें एक नृपशु देवता की कल्पना की गई है जो इंद्र का परम मित्र है. यह देवता अनोखे ढंग से भारतीय देवमंडल में प्रवेश करता है. हनुमान, गणपति और नृसिंह इस अनोखे लोकदेव का विस्तार हैं.
वृषाकपि सूक्त में इंद्राणी अपने पति इंद्र से इसकी मैत्री का विरोध करती हैं, लेकिन बाद में वह सहमत होकर वृषाकपि को आशीर्वाद देती हैं. इस सूक्त का इंद्र, पुराणों का लोलुप, कुटिल और ‘इनसिक्योर’ देवराज इंद्र नहीं है. वैदिक संदर्भों में इंद्र प्राचीन आदित्य हैं. इंद्र के साथ मैत्री से वृषाकपि सौर देव मंडल में आते हैं. आदित्य से विष्णु और विष्णु से राम. राम और हनुमान का कथा बीज संभवत: इंद्र और वृषाकपि की मित्रता में है.
इसके बाद वृषाकपि वैदिक से पौराणिक और लौकिक फिर अनंत स्वरूपों में फैल जाते हैं. पुराणों में वृषाकपि सूर्य, विष्णु शिव और अग्नि सभी पर्याय के तौर पर मिलते हैं. यह एकादश रुद्र की सूची में भी हैं और विष्णु सहस्त्रनाम में भी. ब्रह्मपुराण में वृषाकपि इंद्र और इंद्राणी के पुत्र हैं. इंद्र और विष्णु से होते हुए वृषाकपि रुद्र के स्वरूप में समाहित हो जाते हैं. नर पशु अवतार की कल्पना को संतुलित करने के लिए नृसिंह को विष्णु अंश और हनुमान को रुद्र अंश बनाना शैव-वैष्णव चिंतन के समन्वय की परम्परा के अनुकूल है.
अंजना मरुत की प्रणय कथा का बीज इंद्र इंद्राणी में हो सकता है क्योंकि इसके बाद हनुमान को शिव का अवतार बनाने के लिए एक अनोखा कथा सूत्र मिलता है. वाल्मीकि रामायण, ब्रह्मपुराण और शिवपुराण में हनुमत जन्म की कथा का संबंध भस्मासुर से है. औघड़दानी शिव ने भस्मासुर को एक ऐसा वरदान दे दिया कि वह उनके लिए बवाल ए जान बन गया. भस्मासुर को भरमाने और शिव को बचाने के लिए विष्णु मोहिनी स्वरूप में आए. विष्णु का यह स्वरूप देखकर शिव मोहित हुए. उनके स्खलित शुक्र बीज को मरुत ने धारण किया और उसे अंजना में स्थित कर दिया.
देवताओं के जन्म का यह पैटर्न भारतीय पुराण परम्परा में सबसे प्रचलित रहा है. यहाँ से हनुमान शिवांश के रूप में स्थापित होकर आंजनेय या पवनपुत्र बन जाते हैं. लोक जीवन में बजरंगबली और महाबली की प्रतिष्ठा संभवत: वाल्मीकि से आई क्योंकि तुलसी ने तो हनुमान को युद्धक कम भक्त अधिक बताया है.
अंजना के गर्भ से उत्पन्न हनुमान को वायु का पुत्र भी कहा जाता है. केसरी सुमेरु पर्वत पर रहने वाले वानरों का राजा था. हनुमान की मां अंजनी फलों के लिए वन में गई हुई थी. वहीं इनका जन्म हुआ. तुरंत ही इन्हें भूख का अनुभव हुआ और सूर्य को फल समझकर उसे खाने के लिए दौड़े. सूर्य इनकी चपेट में आकर कराह उठा. इस पर इंद्र ने वज्र से प्रहार किया जिससे इनकी ठोड़ी (हनु) टेढ़ी हो गई और नाम हनुमान पड़ गया. अपने पुत्र पर इंद्र का प्रहार देखकर पवन ने चलना बंद कर दिया. इस पर घबराए हुए देवता दौड़े-दौड़े वहाँ आए और हनुमान को उड़ने की तथा नाना रूपधारण करते की शक्तियाँ दीं. उन्हें अमरता का वरदान भी मिला. हनुमान का एक नाम बजरंगबली भी है. हनुमान जी अकेले ऐसे देवता हैं जिनका जन्मदिन साल में दो बार मनाया जाता है. पहला भारतीय कैलेंडर के अनुसार चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को और दूसरा कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी यानी दीपावली के एक रोज़ पहले जिसे नरकचतुर्दशी कहते हैं. यह देश विद्वानों का है. जहाँ विद्वान होंगे वहाँ वैमत्य होगा. हनुमान जी के जन्मदिन पर भी वैमत्य है.
‘हनुमदुपासना कल्पद्रुम’ ग्रंथ में उल्लेख है कि जब हनुमानजी का जन्म हुआ था, उस समय चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा तो थी ही, दिन मंगलवार, नक्षत्र चित्रा था. सूर्य अपनी उच्च राशि मेष और शनि अपनी उच्च राशि तुला में था.
चैत्र मासिसिते पक्षे पौर्णमास्यां कुजेऽहनि।
मौलीमेखलयायुक्त: कौपीन परिधारक:।
यानी चैत्र मास के शुक्लपक्ष में मंगलवार और पूर्णिमा के संयोग की बेला में मूंज की मेखला से युक्त लंगोटी पहने यज्ञोपवीत धारण किए हुए हनुमानजी का आविर्भाव हुआ.
‘स्कन्द पुराण’ भी हनुमान् जी का जन्म चैत्र पूर्णिमा को ही मानता है-
प्रादुरासीत्तदा तां वै भाषमाणो महामतिः।
मेषसंक्रमणं भानौ सम्प्राप्ते मुनिसत्तमाः॥
पूर्णिमाख्ये तिथौ पुण्ये चित्रानक्षत्रसंयुते।
(स्कन्द पुराण वैष्णवखण्ड ४०/४२-४३)
‘तन्त्रसार’ ग्रन्थ के मुताबिक़ हनुमान जी का जन्म चैत्र पूर्णिमा को हुआ था-
चैत्रे मासि सिते पक्षे पौर्णमास्यां कुजेऽहनि।
मौञ्जीमेखलया युक्तः कौपीनपरिधारकः॥
कर्णयोः कुण्डले प्राप्तस्तथा यज्ञोपवीतकः।
प्रवालसदृशो वर्णो मुखे पुच्छे च रक्तकः॥
एवं वानररूपेण प्रकटोऽभूत् क्षुधातुरः।
लेकिन वाल्मिकी रामायण हनुमानजी की जन्मतिथि दूसरी मानता है. उसके अनुसार उनका जन्म कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी यानी नरक चतुर्दशी को मंगलवार के दिन, स्वाति नक्षत्र और मेष लग्न में हुआ था.
‘अगस्त्य संहिता’ भी हनुमान् जी का जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ही मानती है.
ऊर्जे कृष्णे चतुर्दश्यां भौमे स्वात्यां कपीश्वरः।
मेषलग्नेऽञ्जनागर्भात् प्रादुर्भूतः स्वयं शिवः॥
‘वायु पुराण’ के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को स्वाति नक्षत्र, मेष लग्न में स्वयं शंकर जी और माता अंजना के गर्भ से प्रकट हुए-
आश्विनस्यासिते पक्षे स्वात्यां भौमे च मारुतिः।
मेषलग्नेऽञ्जनागर्भात् स्वयं जातो हरः शिवः॥
आद्य जगद्गुरु रामानन्दाचार्य के ग्रन्थ ‘श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर’ के अनुसार हनुमान जी का जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हुआ. इसलिए रामानन्द सम्प्रदाय के अनुयायी हनुमान जयंती कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ही मनाते हैं-
स्वात्यां कुजे शैवतिथौ तु कार्तिके।
कृष्णेऽञ्जनागर्भत एव साक्षात्॥
मेषे कपिट् प्रादुरभूच्छिवः स्वयं।
व्रतादिना तत्र तदुत्सवं चरेत्॥
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर ८१)
पद्म विभूषण जगद्गुरु रामानन्दाचार्य रामभद्राचार्यजी ने एक किताब लिखी है। ’गीतरामायणम्’. उसके अनुसार-
शम्भुश्चायं ननु पवनतोऽप्यञ्जनायां प्रजज्ञे।
प्रातः स्वात्यां कनकवपुषा मङ्गले मङ्गलाढ्यः
(बालकाण्डम्, सर्ग-२ गीतराघवाविर्भावो नाम, गीत-४ सन्दर्भश्लोक)
यानी भगवान शिव, श्रीपवन के संकल्प से माता अंजना के गर्भ में आकर प्रातःकाल स्वाति नक्षत्र में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, प्रातःकाल मंगल के दिन स्वर्ण के समान शरीर धारण करके श्री हनुमान के रूप में प्रकट हुए.
बड़ा कन्फ़्यूज़न है हनुमान जी के जन्मदिन को लेकर. एक कथा यह भी है कि आज के ही दिन हनुमान जी सूर्य को फल समझ कर खाने के लिए दौड़े थे. उसी दिन राहु भी सूर्य को अपना ग्रास बनाने के लिए आया हुआ था, लेकिन हनुमानजी को देखकर सूर्यदेव ने उन्हें दूसरा राहु समझ लिया. इस दिन चैत्र माह की पूर्णिमा थी. शायद यह तिथि इस कारण हनुमान जी के जीवन में ख़ास हो. जबकि कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को उनका जन्म हुआ हो.
एक और मान्यता है कि माता सीता ने हनुमानजी की भक्ति और समर्पण को देखकर उनको अमरता का वरदान दिया था. यह दिन नरक चतुर्दशी का दिन था. वाल्मीकि जी ने जो लिखा है उसे सही माना जा सकता है. मैं बनारसी हूँ. बनारस में हनुमान जी का जन्मदिन नरक चतुर्दशी को ही मनाया जाता है. बचपन से हम इस रोज़ संकटमोचन मंदिर जाकर हनुमान जी का जन्मदिन मनाते रहे हैं. इस मंदिर की स्थापना गोस्वामी तुलसी दास ने की थी. कथा यह भी है कि राम चरित मानस को पहली बार तुलसीदास ने अस्सी घाट के पास तुलसी घाट पर सुनाया. तीन दिन तक राम चरित मानस के पाठ के बाद कुछ ईर्ष्यालु पंडितों ने तुलसी को यह कहकर पीट दिया कि अब रामकथा सबके कानों में पड़ेगी. घायल तुलसीदास को तब पास की वाटिका में रहने वाले एक वृद्ध ने अपने पास शरण दी. इस वृद्ध की आयु और जन्म किसी को पता न था. इलाज उपचार से ठीक हुए तुलसीदास ने इसी वाटिका में उस वृद्ध को पहचाना. कहा जाता है कि वे स्वयं हनुमान थे. यहीं तुलसी ने ‘को नहीं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो’ लिखा. इसी जगह को हम संकटमोचन के नाम से जानते हैं और यहीं बाद में तुलसीदास ने हनुमान मंदिर की स्थापना की जो आज काशी का सबसे प्रसिद्ध और सिद्ध हनुमान मंदिर है.
वाल्मीकि रामायण के मुताबिक़ हनुमान जी वायु देवता के औरस पुत्र हैं. उनका शरीर वज्र के समान है और रफ़्तार गरुड़ की है. वनवास के दौरान जब भगवान राम और लक्ष्मण किष्किन्धा की ओर आते हैं, तो हनुमान अपना परिचय देते हुए स्वयं को वायु देवता का वानर जातीय पुत्र बताते हैं. कथा यह है कि पुञ्जिकस्थला नाम की अप्सरा श्राप वश कपि योनि में पैदा हुई. यह पुत्री अंजना कहलाई. जिसका विवाह वानर राज केसरी से हुआ. एक दिन अंजना मानवी स्त्री का शरीर धारणकर बारिश के बादल की तरह पर्वत-शिखर पर विचर रही थीं. सहसा वायु का तीव्र झोंका आया और अंजना के वस्त्र को वायु देवता ने धीरे से हर लिया. अंजना सती नारी थी. उस अवस्था में वह घबरा उठी और बोली- ‘कौन मेरे पावित्र्य का नाश करना चाहता है?’ अंजना की बात सुनकर पवन देव ने उत्तर दिया- सुश्रोणि, मैं तुम्हारे पत्नी व्रत का नाश नहीं कर रहा हूँ. ‘यशस्विनि! मैंने अव्यक्त रूप से तुम्हारा आलिंगन करके मानसिक संकल्प के ज़रिए तुम्हारे साथ समागम किया है. इससे तुम्हें बल पराक्रम से सम्पन्न पुत्र प्राप्त होगा. जो महान धैर्यवान, महातेजस्वी, महाबली, महापराक्रमी तथा लाँघने और छलाँग मारने में मेरे समान होगा.
मनसास्मि गतो यत् त्वां परिष्वज्य यशस्विनी।
वीर्यवान् बुद्धिसम्पन्न स्तव पुत्रो भविष्यति ।।
महासत्ता महाते जा महाबल पराक्र मः ।
लं धने प्लवने चैव भविष्यति मया समः ।।
इस वरदान के बाद अंजना ने एक गुफा में हनुमान को जन्म दिया. भविष्यपुराण में भी हनुमान को शिव का अवतार बताया गया है. जब रावण से त्रस्त देवतागण शिव की स्तुति करते हैं, तब यह वरदान मिलता है कि रावण के नाश के लिए वे स्वयं अवतार लेंगे.
शिवस्य रौद्रं तेजः केशरिणी मुखेप्रविशति
हनुमान के अलावा पवनपुत्र, शंकर-सुवन, केसरीनन्दन, आंजेनय, मारुति, रुद्रावतार, आदि नामों से भी वे जाने जाते हैं. इन सभी नामों अथवा विशेषणों में कुछ रहस्य-संकेत छिपे हैं. हनुमान का ‘पवनपुत्र’ नाम जग विख्यात है. हनुमान वायु देवता के मानस औरस पुत्र हैं इसलिए उन्हें ‘वातात्मज’, ‘पवनपुत्र’, ‘वायुनन्दन’, ‘मारुति’ आदि नामों से जाना जाता है. हनुमान मातृपक्षीय नाम आंजनेय से भी संबोधित होते हैं. उनका ‘महावीर’ नाम अतुलनीय बल, पराक्रम, वीरता का द्योतक है. इस नाम से उनका व्यक्तित्व, स्वभाव, पौरुष व्यक्त होते हैं.
हनुमान भारतीय मिथक परम्परा के चर्तुयुगीय पात्र हैं. रामकथा के विस्तार के साथ हनुमान भारत की सभी भाषाओं और एशिया की अन्य भाषाओं की रामायणों में पहुँच गए. हनुमान के साथ एक अनोखा पक्ष यह है कि हर भाषा की रामकथा में उन्हें लेकर कुछ अलग ही सन्दर्भ मिलते हैं. राम के साथ उनकी मित्रता की विलक्षण कथाएँ हैं. कहीं वह विवाहित हैं तो कहीं उनके कई भाई मिलते हैं. कहीं तो राम हनुमान पिता-पुत्र हो जाते हैं. शैव और वैष्णव सम्प्रदायों के कथा संसार में हनुमान समान रूप से आते हैं. मूल कथा वही है, लेकिन अद्भुत विविधता है. जैन और बौद्ध ग्रंथों में हनुमत तत्व अनोखे स्वरूप में है. जातक कथाओं में भी कपि पात्रों का वर्णन है.
बुद्ध के जीवनकाल में भी एक वानर का सन्दर्भ हैं. बुद्ध अपने शिष्यों से अलग होकर वन में विचरण कर रहे थे. घोर ग्रीष्म ऋतु थी. थके हुए बुद्ध रास्ते में पड़े हैं. कुछ दूर एक सुगंधित सरोवर है जहाँ कमल खिले हुए हैं. बुद्ध को क्लांत देखकर चारों दिशाओं से चार गजराज आते हैं. वे सरोवर से जल लाकर बुद्ध का अनोखा अभिषेक करते हैं. बुद्ध अपने चीवर को निचोड़कर एक वृक्ष की छाया में बैठ जाते हैं. तभी एक दीर्घकाय वानर आता है जिसके हाथ में मधु का छत्ता है. बुद्ध शांत भाव से उसकी ओर देखते हैं और फिर अपना भिक्षा पात्र आगे कर देते हैं. वह वानर उसमें मधु निचोड़ देता है. बुद्ध को वानर का मधुदान बौद्ध कला का प्रतिष्ठित प्रतीक है.
वेद से पुराण, पुराण से महाकाव्य, महाकाव्य से लोक तक होते हनुमान शिव और विष्णु की तरह मुद्राओं पर भी स्थापित हुए. ग्यारहवीं सदी में कलचुरियों के शासन में जारी मुद्राओं पर हनुमान का अंकन है. सम्राट जाजल्लदेव की इन मुद्राओं पर हनुमान गदा लिये हुए राक्षसों का मर्दन करते दिखते हैं. चंदेल राजाओं ने भी हनुमान की आकृति को सिक्कों पर ढाला था. हालाँकि यह अंकन कलचुरियों जितना स्पष्ट नहीं है.
हनुमान बेशुमार ताक़त के प्रतीक हैं. वह कभी किसी हथियार से युद्ध नहीं करते हैं. उनके हथियार हैं थप्पड़, मुट्ठी, लात, पत्थर, पहाड़, पूँछ और पेड़. तुलसीदास भी उन्हें हथियार नहीं देते. फिर हनुमान जी के पास गदा कहाँ से आई? यह रहस्य है. उनकी गदा का वर्णन कहीं मिलता नहीं. राम का प्रिय शस्त्र धनुष-बाण है. एकाध जगह तलवार भी मिलती है. हनुमान रुद्र के अवतार हैं, तो त्रिशूल रखना चाहिए. शास्त्रों में गदा भगवान विष्णु के हाथ में है. संभव है, हनुमान जी को गदा अपने छोटे भाई भीम से मिली हो. वायु के छोटे पुत्र भीम थे. दोनों शरीर शक्ति पर भरोसा रखते हैं. बचपन में ही सूर्य, राहु और ऐरावत को ठीक किया था. गदा में बाण, चक्र और तलवार की तुलना में पौरुष ज़्यादा है.
हनुमान जी सहज सरल हैं. उनकी कथाएँ दिलचस्प हैं. एक कथा है जब हनुमान जी को रावण के राज दरबार में ले जाया गया तो वो शुद्ध संस्कृत बोलने लगे. एक वानर को देवताओं की भाषा बोलते हुए देखकर रावण सोच में पड़ गया. वह समझ नहीं पाया कि आख़िर हनुमान हैं कौन? रावण ने हनुमान का मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया और बैठने के लिए आसन तक नहीं दिया. हनुमान ने कहा कि यदि आप मुझे आसन नहीं देंगे तो मैं ख़ुद अपने लिए आसन बना लूँगा. उन्होंने अपनी पूँछ लंबी की और उसे गोल-गोल घुमाकर उस पर बैठ गए. जब यह आसन रावण के सिंहासन से भी ऊँचा हो गया तो रावण को ऊपर देखकर हनुमान से बात करनी पड़ी. रावण हमेशा नीचे की ओर देखकर बात करता था इसलिए वह इससे क्रोधित हो गया. यह देख हनुमान खुलकर हँस पड़े. रावण और ज़्यादा चिढ़ गया. उसने अपने सिपाहियों से हनुमान की पूँछ में आग लगवा दी. लेकिन हनुमान ने अपनी जलती हुई पूँछ को इधर-उधर घुमाकर पूरी लंका को ही भस्म कर दिया.
हनुमान जी जितने बलवान हैं उससे बढ़कर बुद्धिमान और चालाक हैं. यही कारण है कि सुंदरकाण्ड में तुलसीदास जी ने लिखा भी है ‘राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान’. रामचरित मानस में हनुमान जी की बुद्धिमानी का पहला प्रसंग है जब राम लक्ष्मण ऋषिमूक पर्वत पर सुग्रीव को ढूंढने आते हैं. उस समय सुग्रीव के गुप्तचर बनकर हनुमान जी भगवान राम और लक्ष्मण की टोह लेने आते हैं कि यह मित्र हैं या शत्रु. उस वक्त हनुमान जी एक वेदपाठी ब्राह्मण का वेष बनाकर आते हैं और वेद, पुराणों की नीतिपूर्ण बातें बताकर राम-लक्ष्मण से वन में भटकने का कारण और परिचय पूछते हैं जिससे भगवान राम बहुत प्रभावित होते हैं. लक्ष्मण को जब शक्ति का आघात लगता है तो भी हनुमान की बुद्धिमत्ता का राम लोहा मानते हैं. मेघनाद के शक्तिबाण से मूर्छित लक्ष्मण जी को होश में लाने के लिए संजीवनी बूटी लाने हनुमान जी द्रोणगिरी पर्वत गए, लेकिन वहाँ जड़ी-बूटी समझ में नहीं आने पर पूरा का पूरा पर्वत ही वहाँ से उठा लाए. यह हनुमान के समर्पण का चरम है.
हनुमान जी हमेशा भगवान राम के साथ रहना चाहते थे. इसलिए एक बार पूरे शरीर पर सिंदूर का लेप लगा लिया. जब राम जी ने पूछा कि ये सब क्या है तो हनुमान ने कहा कि जब देवी सीता चुटकी भर सिंदूर लगाती हैं तो आप उनसे इतना स्नेह करते हैं. इसलिए मैंने पूरे शरीर पर सिंदूर का लेप किया है, ताकि आपके हृदय से दूर न होउँ. राम ने हनुमान की निष्ठा देख उन्हें हृदय से लगा लिया.
एक मज़ेदार घटना है. भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न ने भगवान राम की दिनचर्या बनाई, जिसमें हनुमान जी को कोई काम नहीं सौंपा गया? आग्रह करने पर उनसे राम को जम्हाई आने पर चुटकी बजाने को कहा गया ताकि उन्हें जम्हाई न आए. काम मिलते ही हनुमान जी राम जी के साथ उनके साये की तरह पीछे लग गए कि कहीं राम जी को जम्हाई न आ जाए. जब देवी सीता ने हनुमान जी को आदेश देकर कमरे से बाहर रहने के लिए कहा तो बाहर बैठकर ही हनुमान जी लगातार चुटकी बजाने लगे. इससे राम जी का मुँह एक बार जम्हाई करते समय खुला तो खुला ही रह गया. इससे प्रभावित देवी सीता ने हनुमान से क्षमा माँगकर राम की सेवा का काम उन्हें सौंप दिया.
रावण बड़ा ग्लैमरस राजा था. साथ ही विद्वान भी. लेकिन उदार, दयालु या विनम्र बिल्कुल भी नहीं था. इतना सारा ज्ञान होने के बाद भी वो कभी बुद्धिमान नहीं बन सका. ज्ञान और ताकत ने उसे घमंडी बना दिया. बुद्धिमान लोग करूणामय भी होते हैं. पर रावण वैसा नहीं था. वह किसी की भी परवाह नहीं करता था. यहां तक कि अपने राज्य लंका की भी नहीं. उसे लगता था कि उसका राज्य उसकी सेवा के लिए है. न कि वह राज्य की सेवा के लिए.
हनुमान का चरित्र रामकथा में इतना प्रखर है कि उन्होंने राम के आदर्शों को गढ़ने में भी मुख्य कड़ी का काम किया है. रामकथा में हनुमान के चरित्र में हम जीवन के सूत्र हासिल कर सकते हैं. वीरता, साहस, सेवाभाव, स्वामिभक्ति, विनम्रता, कृतज्ञता, नेतृत्व और निर्णय क्षमता जैसे हनुमान के गुणों को अपने भीतर उतारकर हम कामयाबी हासिल कर सकते हैं. जब मैनाक पर्वत ने राम भक्त हनुमान को विश्राम के लिए कहा तब हनुमान जी ने कहा, “हनुमान तेहि परसा, कर पुनि कीन्ह प्रनाम। राम काजु कीन्हें बिनु, मोहि कहाँ बिश्राम।
हनुमान जी अपार बलशाली और वीर भी हैं. विद्वता में उनका सानी नहीं है. फिर भी उनके भीतर रंच मात्र भी अहंकार नहीं. बचपन में सूर्य को ग्रास बना लेने वाले हनुमान राम के समक्ष मात्र सेवक की भूमिका में रहते हैं. सीता हरण के बाद न सिर्फ़ तमाम बाधाओं से लड़ते हुए हनुमान समुद्र पार कर लंका पहुँचे, बल्कि अहंकारी रावण का मद चूर-चूर कर दिया. जिस स्वर्ण-लंका पर रावण को अभिमान था, हनुमान ने उसे ही दहन कर दिया. यह रावण के अहंकार का प्रतीकात्मक दहन था.
हनुमत तत्व की चर्चा में ठाकुर रामकृष्ण परमहंस को कैसे याद न किया जाए. हनुमान जी उनके भी संकटमोचक थे. रामकृष्ण जी ने हनुमान की इतनी गहन साधना की थी कि उनके मेरुदंड का अंतिम हिस्सा बढ़ गया था. यह बात ठाकुर ने स्वयं शिष्यों को बताई थी. रामकृष्ण अपने उपदेशों में हनुमत तत्व का अनोखा विवेचन करते थे. वह कहते थे कि हनुमान में द्वैत और अद्वैत दोनों एकाकार हो जाते हैं.
सबसे विशिष्ट बात यह भी है कि भक्ति की तरह शक्ति का भी अभिमान हनुमान को नहीं है. सीता का पता लगाने दक्षिण को गई वानर सेना सागर के तट पर खड़ी थी. हनुमान चाहते तो स्वयं कह सकते थे कि सभी लोग रुकें और वो लंका तक सीता को खोजकर आते हैं. उनमें क्षमता और शक्ति दोनों थे. लेकिन शक्ति का दिखावा भी हनुमान का स्वभाव नहीं है. इसलिए जबतक जामवंत का आग्रह नहीं हुआ, हनुमान सेना के अनुशासन में ही रहे. क्षमता होते हुए भी अपने को पीछे रखना और अवसर को ख़ुद न लपकना एक ऐसा संदेश है जिसे समझना और अपनाना बहुत ही कठिन है. जीवन का यह अनुशासन मेरी समझ में सबसे कठिन तपों की श्रेणी में देखा जाना चाहिए.
इतना सब होने के बाद भी हनुमान ख़ुद को राम का दास कहलाते थे. हनुमान निस्वार्थ सेवा के अप्रतिम प्रतीक हैं. समाज और राजनीति दोनों ही क्षेत्रों में सफल नेतृत्व का एक ही मूलमंत्र होता है, सेवा. ये मूलमंत्र समझने के लिए हनुमान से बड़ा उदाहरण समूची सृष्टि में दूसरा नहीं. इसलिए नवधा भक्ति के सूत्रों और समर्पण, प्रेम और सेवा के सारे मानकों पर अगर कोई पूरी शास्त्र परम्परा में आदर्श है तो वो हनुमान ही हैं. उनके समतुल्य कोई और देवता या भक्त या दास कभी नहीं आ सका. अहम और स्वयं को भुलाकर जीने की कला और तपस्या का भी सबसे बड़ा नाम हनुमान ही हैं. यही हनुमान को परम तपस्वी, परम योगी, परम दास, परम भक्त और राम का परमपद पात्र बनाता है.
जन्मदिन मुबारक हो महावीर विक्रम बजरंगी. प्रणाम.